किश्तवाड़ वीरों की धरती से एक और पुष्प माँ भारती के चरणों मे चढ़ गया।।

।।किश्तवाड़ वीरों की धरती से एक और पुष्प माँ भारती के चरणों मे चढ़ गया।।

आज 9 अप्रैल किश्तवाड़ के इतिहास का एक और काला दिन। परिहार बन्धुओं के बलिदान को अभी छः महीने भी नहीं बीते थे कि छह महीने के भीतर ही एक बार फिर किश्तवाड़ वासियों के ऊपर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा था, एक बार फिर सब की आंखों से आंसू बह रहे थे। सब के अंदर गुस्सा था, बदले की आग थी बदला उन आतंकवादियों से, बदला उन लोगों से जो इन आतंकवादियों को पनाह दे रहे थे जिन्होंने 6 महीने के अंदर-अंदर एक बार फिर अपनी मजूदगी दिखाते हुए भारत माता के सपूत चंद्रकांत शर्मा जी को शहीद कर दिया था। यह गुस्सा उस ज़िला प्रशासन के खिलाफ भी था जो हर बार की तरह इस बार भी मूक दर्शक की तरह बैठा था।

जिस हॉस्पिटल में वो अपनी सेवाएं देते थे दूसरों के कष्ट दूर करते थे उनको नई जिंदगी देते थे आज उस ही हॉस्पिटल में वो खुद शहीद हो जाएंगे शायद ही किसी ने सोचा होगा। हर दिन की तरह आज भी सुबह घर से तैयार होकर वो हॉस्पिटल पहुँचे लेकिन किस को पता था कि यह उनकी ज़िंदगी का आखिरी दिन है क्योंकि पहले से ही वहां पर 3-4 आतंकवादी घात लगाए उनके इंतेज़ार में बैठे थे। जैसे ही चंद्रकांत जी OPD ब्लॉक से बाहर निकले तो उन आतंकवादियों ने उन पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी जिसमे सबसे पहले उनके अंगरक्षक राजेंद्र कुमार शहीद हो गए और उसके बाद चंद्रकांत जी को पेट मे गोली लगी और वो खून से लथपथ वहीं पर गिर गए और वो आतंकी वहां से भाग निकले। खून अधिक बह जाने और समय पर सही इलाज न मिल पाने के कारण उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

परंतु उस वक़्त वो आतंकी पकड़ में ना आ सके आश्चर्य की बात तो यह है कि पुलिस थाना वहां से 200 मीटर की दूरी पर भी नही है, फिर भी हथियार लिए वो आतंकी वहां पर पहुँच गए और न पुलिस, न सुरक्षा एजेंसियों को इसकी भनक लगी। बार-बार इनको धमकियां मिल रही थी पर पुलिस टस से मस नहीं थी और इस सब को हल्के में ले रही थी जिस की कीमत चंद्रकांत जी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। आज उनके दो छोटे-छोटे बेटों के ऊपर से बाप का साया उठ गया है। आज भी मन मे कई सवाल हैं जिनका जवाब पिछले एक साल में नहीं मिल पाया पर आज वो सवाल नहीं पूछूँगा । 

आज चंद्रकांत जी के शहीदी दिवस पर उनकी याद में उनके जीवन की कहानी, उनके द्वारा किये गए कार्य आप सब के साथ साझा करना चाहूंगा।

शुरू उनके जन्म और बचपन से करते है - 

चंद्रकांत शर्मा जी का जन्म 19 अक्तूबर 1967 में किश्तवाड़ नगर के ब्राह्मण मोहल्ला में हुआ। उनके पिता का नाम श्री सोम नाथ शर्मा और माता का नाम श्रीमती सुशीला देवी था। उनके दादाजी का नाम जगन्नाथ शास्त्री था जो कि संस्कृत के बड़े जाने-माने विद्वान थे।

चन्द्रकान्त शर्मा जी की शुरुआती पढ़ाई आदर्श बाल निकेतन हाई स्कूल में हुई थी। बचपन से ही चंद्रकांत जी में देशभक्ति व जोश भरा हुआ था और सेना के प्रति खास आकर्षण था जिस कारण से वो फौज में भर्ती होना चाहते थे।

90 के दशक में ही विद्यार्थी जीवन में चंद्रकांत जी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी से जुड़े और किश्तवाड़ में उन्होंने विद्यार्थी परिषद का कार्य शुरू किया उसके बाद वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कार्य करने लगे। संघ में शाखा मुख्यशिक्षक, शाखा कार्यवाह, नगर कार्यवाह, ज़िला कार्यवाह, विभाग कार्यवाह, प्रांत सह सेवा प्रमुख आदि दायित्वों का निर्वहन किया।

जैसा कि बचपन से ही चंद्रकांत जी सेना में भर्ती होना चाहते थे परंतु विधाता उनसे कुछ और ही करवाना चाहते थे, 1988 में पढ़ाई पूरी होते ही स्वास्थ्य विभाग में नौकरी लग गई।

एक तरफ चंद्रकांत जी की नौकरी लगी तो दूसरी तरफ किश्तवाड़ में आतंकवाद का दौर शुरू हो चुका था जो कि धीरे-धीरे पूरे जिले में फैल रहा था और किश्तवाड़ में निर्दोष लोगों की हत्याएं करना आतंकवादियों ने शुरू कर दिया था। यह आतंकी निर्दोष लोगों के शवों को भी नहीं छोड़ते थे उनके शवों के साथ बर्बरता की सारी हदें पार कर देते थे।

इस सब के डर से और आतंकवादियों की धमकियों से किश्तवाड़ में भी पलायन शुरू हो चुका था तब चंद्रकांत जी चाहते तो वो भी अपने परिवार के साथ किश्तवाड़ छोड़कर जा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। चंद्रकांत जी ने उसी दौर में मातृभूमि की रक्षा की कसम खाई थी अब चंद्रकाँत जी के समक्ष दो चुनौतियां थीं एक तरफ पलायन रोकना था तो दूसरी तरफ इस आतंकवाद रूपी दानव को भी समाप्त करना था।

इस दानव को समाप्त करने के लिए चंद्रकांत जी ने कमर कस ली और स्वयं आगे आकर अहम भूमिका निभाई बिना अपनी जान की परवाह किए उन्होंने उस समय युवाओं का नेतृत्व किया और आतंकवादियों से लोहा लेते गए जिसके फलस्वरूप किश्तवाड़ से हिन्दू परिवारों का पलायन रुक गया।

एक बार चेरजी गांव में आतंकवादियों ने सामूहिक नरसंहार किया बहुत सारे लोगों को एक साथ शहीद कर दिया था तो तब कुछ नौजवानों ने उनकी चिता पर कसम खाई थी कि हम आतंकवाद को किश्तवाड़ से समाप्त कर देंगे और तब से चन्द्रकान्त जी और ऊर्जा के साथ सेना के साथ मिल कर आतंकविरोधी अभियानों में हिस्सा लेने लगे। एक बार तो सीमा पार बैठे आतंकियों के आकाओं को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से रेडियो के द्वारा कहना पड़ा कि यह व्यक्ति हमारे मंसूबों के बीच मे आ रहा है और हमारे लिए मुसीबत खड़ी कर रहा है।

जब चंद्रकांत जी नागसेनी के पुल्लर में कार्यरत थे तो उन्हीं के मार्गदर्शन में पहली बार 15 अगस्त और 26 जनवरी का कार्यक्रम वहां पर शुरू हुआ था।

जवानी की दहलीज़ अब पार हो चुकी थी परिवार तो सबका एक सा ही  होता है माता-पिता को उनके विवाह की चिंता सता रही थी उनहोंने अपने पुत्र के सामने अपनी इच्छा प्रकट की किन्तु चंद्रकांत जी पर तो मानो देशभक्ति का नशा इस कदर छाया था जैसे उनके जीवन में दूसरी कोई इच्छा बाकी न रह गई हो. नाना प्रकार से समझाया बुझाया किन्तु घर वालों की एक न चली उनहोंने घर वालों को समझाया कि समाज के ऊपर इतना संकट है आतंकवादी निहत्थे, निरअपराध,बच्चों और औरतों को मार रहे हैं मन्दिरों को जला रहे हैं सामूहिक नरसंहार कर रहे हैं ऐसे समय में मैं शादी कैसे कर सकता हूँ  मैरा भगवान् में अटूट विश्वास है यदि मैरे भाग्य में हुआ तो शादी भी हो जाएगी किन्तु अभी मैरी प्राथमिकता मैरा काम है जो मैं कर रहा हूँ।

आतंकवाद में थोड़ी कमी आई तो परिवार ने फिर शादी के लिये दबाव बनाया इस बार माता, पिता, भाई, बहनें और जीजाजी सभी ने आग्रह किया कि हम अब आपकी शादी देखना चाहते हैं परिवार की खुशी इसी में जानकर इसबार उन्होंने हामी भर दी बस फिर क्या था परिवार की खुशी का ठिकाना न था।

किन्तु परिवार की चिंता यही समाप्त नहीं हुई। 

चंद्रकाँत जी की साहस और वीरता के किस्से पूरे किश्तवाड़ में मशहूर हो गए थे शायद ही कोई ऐसा घर रहा होगा जहाँ उनकी ख्याति न पहुँची हो किन्तु उनकी यही ख्याति अब उनकी शादी के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट बन रही थी।

चंद्रकाँत जी के लिए समाज में हर व्यक्ति के दिल में सम्मान तो था किन्तु ये भी कटु सत्य है कोई भी अपनी पुत्री का विवाह ऐसे व्यक्ति के साथ करने का विचार भी नहीं करना चाहता था जो आतंकियों की आँख का काँटा बन गया हो और हमेशा उनके निशाने पर हो ऐसी स्थिति परिवार के लिए अपनी बहू तलाशने का काम कोई आसान काम नहीं था।

आखिरकार विधाता के संयोग से परिवार की नज़र एक सुन्दर और सुशील कन्या पर पड़ी जिसका नाम था सीमा शर्मा, सीमा बेड़ा भाटा गाँव के स्वरूप शर्मा और चंपा देवी की ज्येष्ठ पुत्री थी परिवार वालों ने शादी का प्रस्ताव भेजा तो स्वरूप जी जो एक धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे और  सामाजिक और धार्मिक कार्यों में बड़ी रूचि लेते थे चंद्रकाँत जी कार्यों से प्रभावित भी थे उन्होंने प्रस्ताव को ये कहकर स्वीकृति दे दी कि ये मेरे और मेरे पूरे कुल के लिए गर्व की बात होगी कि ऐसे देशभक्त व्यक्ति के साथ मेरी पुत्री का विवाह होगा और 1998 में चंद्रकांत जी की विवाह हुआ था।

एक बार जन्माष्टमी के पर्व पर बजरंग दल द्वारा झांकी निकालने की योजना बनाई गई दो दिन के भीतर ही सारी तैयारियां करनी थीं कहीं से सहयोग नहीं मिला सबने हाथ पीछे खेंच लिए, लेकिन उस समय भी चंद्रकांत जी ने आगे आकर युवाओं का हौसला बढ़ाया और खुद झाँकी तैयार करने में उनकी सहायता की और झांकी के साथ भजन कीर्तन करते हुए चले। यह झाँकी आकर्षण का केन्द्र भी बनी,  कुछ इस तरह से उन्होंने उस समय उन युवाओं का हौसला टूटने नहीं दिया।

चंद्रकांत जी सामाजिक कार्यो में भी आगे थे और विद्यार्थियों में शिक्षा और संस्कार के साथ-साथ राष्ट्रवादी विचारधारा भी ग्रहण करें इसलिए एक विद्यालय भी खोला जिसका नाम उन्होंने अपने स्वर्गीय दादा जी के नाम पर रखा।

हम सब के लिए चंद्रकांत जी का जीवन प्रेरणादायी है वे अक्सर कहते थे कि अपने समाज मे अधिक्तर लोग प्रबुद्ध या सम्पन्न बन जाते है तो वे अपने समाज,जन्म भूमि और अपने इतिहास को भूल जाते है और तथाकथित Secular बन जाते हैं पर चंद्रकांत जी मे ऐसा बिल्कुल भी नहीं था उन्होंने हमेशा अपने समाज के बारे में सोचा और समाज के उत्थान के लिए अंत तक कार्यरत रहे। 

वे कहा करते थे कि हम जहाँ भी पैदा हुए है पले बढ़े उस क्षेत्र के प्रति हमारे मन मे लगाव होना चाहिये, प्रेम और स्वाभिमान होना चाहिए।

परिस्थितियाँ बदली तो चंद्रकांत जी ने भी समय की आवश्यकता को देखते हुए धार्मिक जनजागरण का काम प्रारंभ किया उन्होंने भण्डारकूट समेत कई जगह मंदिर निर्माण भी किया और कई मन्दिरों में माइक और लाउडस्पीकर भी लगवाए। 

हम कभी समाज के लिए कुछ करते है तो सोचते है की इसमें मैरा क्या लाभ होगा या कभी लोग भी प्रश्न करते है कि इससे आपका क्या फायदा होगा और इसमे इसका कुछ स्वार्थ तो नहीं है।

लोग क्या कह रहे हैं और लोग क्या कहेंगे इस सब की चिंता किये बगैर उन्होंने भंडारकूट में मंदिर निर्माण किया जो कि आज शक्ति का केंद्र बन चुका है।

जो कांटो के पथ से आया जीने का उपहार उसी को जिसने मरना सिख लिया जीने का अधिकार उसी को।।

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