चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्व:-

"भारतीय नववर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रमी संवत् की आप सभी को हार्दिक बधाई  एवं शुभकामनाएँ ।

 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्व:-
 
1.इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की।
2.सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन राज्य स्थापित किया। इन्हीं के नाम पर विक्रमी संवत् का पहला दिन प्रारंभ होता है।
3.प्रभु श्री राम के राज्याभिषेक का दिन यही है।  
4.शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात् नवरात्र का पहला दिन यही है। 
5.सिखो के द्वितीय गुरू श्री अंगद देव जी का जन्म दिवस  है।  
6.स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना की एवं कृणवंतो विश्वमआर्यम का संदेश दिया |
7.सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार भगवान झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए।
8.विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना। विक्रम संवत की स्थापना की ।
9.युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।
10 संघ संस्थापक प पू डॉ केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्म दिन ।
11 महर्षि गौतम जयंती 
--------------------------------------
भारतीय नववर्ष का प्राकृतिक महत्व :-
--------------------------------------------
1.वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है।
2.फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।
3.नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है।
----------------------------------

नवरात्रि एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ होता है नौ रातें । ये पर्व साल में चार बार आता है। पोष, चैत्र, आषाढ और अश्विन प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। नवरात्रि के नौ रातो में तीन देवियों - महालक्ष्मी, महासरस्वती और दुर्गा के नौ स्वरुपों की पूजा होती है जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं ।

चैत्र नवरात्र में दिन बड़े होने लगते हैं और रात्रि घटती है | आज जब ये शुरू होगा तो कई लोग उपवास रखेंगे, पूजा पाठ भी करेंगे | 

सनातनी हिन्दुओं में “शैतान” जैसी कपोलकल्पना के लिए कोई स्थान नहीं। पाप की पराकाष्ठा भी आपको ईश्वर के पास पहुंचा देगी। जैसे देवी के नामों को देखेंगे तो जिस राक्षस के वध के लिए उन्हें जाना जाता है, उसका नाम लिए बिना आप देवी का नाम नहीं ले सकते। महिषासुर कहे बिना महिषासुरमर्दिनी नहीं कह सकते, शिव के नाम में भी गजन्तक, तमन्तक कहने में राक्षस का नाम आ जाता है। भगवान विष्णु के द्वारपालों, जय-विजय की कहानी इनमें से कई राक्षसों के जन्म के पीछे होती है, ये भी एक वजह है कि राक्षसों-असुरों को कभी सनातन धर्म में घृणित या निकृष्ट नहीं माना गया।

देवी का नाम दुर्गा होने के पीछे दुर्गमासुर कि कहानी होती है। ये रुरु का पुत्र हिरण्याक्ष (हिरण्यकश्यप-हिरण्याक्ष) के वंश का था और उसे एक बार वेदों के ज्ञान की अभिलाषा हुई। उसने कठिन तप से ब्रह्मा को प्रसन्न किया और वेदों के रचियेता से सारे वेद ही वर स्वरुप मांग लिए। वेद मिलने पर उसने सारी जानकारी अपने लिए रखनी चाही, जिसका नतीजा ये हुआ कि ऋषि-मुनि वेद भूलने लगे। वेदों के ज्ञान के लोप से यज्ञ संभव नहीं रहे और होम ना होने से वर्षा भी रुक गई। लम्बे समय तक बारिश ना होने से जब नदी नाले सूखने लगे और पेड़ पौधे, कृषि भी समाप्त होने लगी तो कई प्राणी मरने लगे।

ऐसे ही समय में राक्षस ने स्वर्ग के देवताओं पर भी आक्रमण किया। यज्ञों के भाग से बरसों से वंचित देवता मुकाबला नहीं कर पाए और भागकर सुमेरु पर्वत की गुफाओं में जा छुपे। उधर ऋषि मुनि भी कंदराओं में थे तो सबने मिलकर माहेश्वरी का आह्वान किया। पार्वती उनके तप से प्रसन्न होकर जब प्रकट हुई तो देवताओं ने उन्हें पृथ्वी की दुर्दशा बताई। हजारों आँखों से इस अवस्था को देखती हुई देवी के आँखों से ऐसी हालत देखकर आंसू बहने लगे। लगातार नौ दिनों तक रोती देवी के आंसुओं से ही बरसात हुई। पानी नदियों और तालाबों, फिर उनसे समुद्र में भी भरने लगा।

अब देवी ने अपना स्वरुप बदला और वो आठ हाथों में धान्य, फल-सब्जियां, फूल और दूसरी वनस्पतियाँ लिए प्रकट हुई। शताक्षी (सैकड़ों नेत्रों वाली) देवी के इस स्वरुप को शाकम्भरी कहते हैं। वेदों को हड़पे बैठे असुर को वेद लौटाने को कहने के लिए उन्होंने दूत भी भेजा। दुर्गमासुर कई देवताओं को जीत चुका था और उसपर बातों का कोई असर तो होना नहीं था। नतीजा ये हुआ कि वो अपनी कई अक्षौहणी सेना लिए देवी पर आक्रमण करने आया। देवी ने अपना स्वरुप फिर बदला और इस बार वो अस्त्र-शस्त्रों से लैस प्रकट हुईं। उनकी और से युद्ध में परा शक्तियां काली, तारिणी, त्रिपुरसुन्दरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला इत्यादि भी उतरीं।

देवी के शरीर से ही नवदुर्गा, मातृकाएं, योगिनियाँ और अन्य शक्तियां भी प्रकट होकर युद्ध में सम्मिलित होने लगीं। थोड़े ही दिनों में दुर्गमासुर की सारी सेना समाप्त हो गई और ग्यारहवें दिन दुर्गमासुर रथ पर सवार स्वयं युद्ध में उतरा। देवी और राक्षस का युद्ध दो पहर चला और राक्षस मारा गया, राक्षस के देवी के शरीर में समाते ही विश्व की व्यवस्था फिर पहले जैसी हो चली।

राजस्थान के सांभर झील के बारे में मान्यता है कि वो शाकम्भरी देवी ने ही दिया था, उसके पास ही उनका मंदिर भी है। सिकर के पास भी उनका एक मंदिर है और कोलकाता में भी उनके कई मंदिर हैं। शिवालिक की पहाड़ियों में सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के पास का एक शक्ति पीठ भी उनका ही मंदिर माना जाता है। कट्टक (ओड़िसा) के पास भी एक शाकम्भरी धाम है। बादामी और बंगलौर में शाकम्भरी देवी के मंदिर हैं। फल-फूलों, वनस्पतियों या कहिये सीधा प्रकृति से जुड़े धर्म के ऐसे उदाहरण कम ही सुनाई देते हैं। ऐसी वजहों से भी धर्म, कहीं ज्यादा बेहतर एक जीवन पद्दति हो जाती है जो किसी भी रिलिजन या मजहब में नहीं होता।

“नव” शब्द का एक अर्थ नया, नूतन, नवीन भी होता है। इस बार जब नवरात्रि बीत रही है तो अपने धर्म को एक नयी नजर से, किसी और के सिखाये मुताबिक नहीं, बल्कि अपनी खुद की नजर से देखिये।

ये तय करना लगभग नामुमकिन है कि एक चक्र (सर्किल) शुरू कहाँ से हुआ और ख़त्म कहाँ पर। इस कारण शाक्त परम्पराओं को देखेंगे तो कठिनाई होगी। बरसों मैकले मॉडल की पढ़ाई और ईसाई नियमों पर बने कानूनों के कारण अवचेतन मन विविधता को स्वीकार करने में आनाकानी शुरू कर सकता है। शाक्त परम्पराओं में कुछ आदि काल से चली आ रही लोक-परम्पराएं हैं, कुछ तांत्रिक मत से आती हैं, और कुछ सनातन वैदिक। देवी की उपासना भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे लम्बे समय से जीवित है। स्त्री भी देवी हो सकती है, ऐसा मानने वाली दूसरी सभ्यताएं मिट गयीं, या मिटा डाली गयीं।

सबसे लम्बे समय तक परम्पराएं कैसे चलती हैं इसका उदाहरण आपको लोटे में दिख जाएगा। भारत के कई क्षेत्रों मं  पानी पीने या रखने के लिए जो लोटा होता है, उसके सबसे पुराने नमूने हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की सिन्धु घाटी सभ्यता में मिलते हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने का जो तरीका सिन्धु घाटी सभ्यता में इस्तेमाल होता था, वही तरीका असम के माजुली द्वीप के निवासी आज भी प्रयोग करते हैं। सभ्यता के लगातार होने के प्रमाण अगर अभी तक ढूंढें नहीं जा सके हैं तो सभ्यता लगातार जीवित नहीं थी, इस बात के भी कोई प्रमाण नहीं हैं। पहले सरस्वती नदी का अस्तित्व था कहने पर मजाक उड़ाया जाता था, अब आक्रमणकारी इसपर चुप्पी साधते भी दिख ही जायेंगे।

रोबर्ट रेडफील्ड नाम के मानव विज्ञानी (अन्थ्रोपोलोगिस्ट) ने भारत की धार्मिक मान्यताओं को बड़ी और छोटी धारा में बांटने की कोशिश की थी, जिसे बाद में मिल्टन सिंगर और एम.एन. विश्वास जैसे मानव विज्ञानियों ने बढ़ावा भी दिया। उनके हिसाब से बड़ी धारा वो होती थी जिसके लिखित ग्रन्थ थे, उन ग्रंथों को पढ़ने-समझने और समझाने वाला एक वर्ग था। उनके बड़े नेता होते थे जो उसके भाव को जन-जन तक पहुंचाते, धार्मिक तीर्थ होते थे और तिथियों का अपना पंचांग (कैलेंडर) भी होता था। जाहिर है विदेशी चश्मे से देखने के कारण उनसे समझने में कई गलतियाँ हुई हैं। छोटी धारा में वो अनगढ़ प्रथाओं और अंधविश्वासों वाली अलिखित ग्रामीण परम्पराओं को रखते थे।

शाक्त परम्पराओं में देखने पर उनकी अवधारणा की कमियां और स्पष्ट दिखती हैं। ग्रामीण भक्ति भाव का प्रयोग वैदिक रीतियों में भी होगा और संस्कृत में लिखे वैदिक मन्त्रों का प्रयोग तांत्रिक रीतियों में भी स्पष्ट दिख जाता है। दुर्गा पूजा और नवरात्रि का महत्व इसमें भी है कि जरा सा ध्यान देते ही ये आपकी आँख से सेकुलरिज्म का टिन का चश्मा उतार देती है। यहाँ कर्म और वचन तक ही नियम शेष नहीं होते (बांग्ला में “शेष होना” मतलब ख़त्म होना होता है)। यहाँ नियम मन और विचारों पर भी लागू होते हैं। ये कुछ कुछ वैसा है, जैसा भारतीय कानूनों में होने लगा है।

अदालतों में मंदिर के देवी-देवता को जीवित व्यक्ति का दर्जा दिया जाता है, उसकी ओर से कोई मित्र-बान्धव बनकर मुकदमा लड़ता है। शास्त्रों में भी कुछ ऐसा ही कहा जाता है। विशेषकर भक्तियोग सम्बन्धी अवधारणाओं में ये निर्देश होते हैं कि किस देवी या देवता को क्या माना जा सकता है। जैसे श्री कृष्ण के लिए सखा भाव बिलकुल मान्य होगा, लेकिन देवी दुर्गा का उपासक कोई पुरुष, देवी को सखा नहीं मान सकता, वो माता के ही भाव में रहेंगी। ये किसी “बड़ी धारा” में ढूंढना जरूरी नहीं, ये साधारण ग्रामीण नियमों में भी दिख जाएगा। कई मंदिरों में पुरुषों के अकेले साड़ी-चूड़ी जैसी चीज़ें चढ़ाने के प्रयास को अजीब सी हेय दृष्टि का सामना करना पड़ सकता है।

आयातित विचारधारा ने एक राजा के दूसरे से युद्ध को शैव और वैष्णव या शाक्तों के वैमनस्य के रूप में भी दिखाने की कोशिश की है। मंदिरों में जाने और दुर्गा पूजा करने का एक फायदा ये भी है कि इस अवधारणा में भी दर्जनों छेद नजर आ जायेंगे। शैव मंदिर हों या राम मंदिर, शायद ही कोई ऐसी जगह होगी जहाँ एक देवी-देवता के मंदिर में दूसरे को स्थान न दिया गया हो। अजंता-एल्लोरा के चित्र हों, कैलाश मंदिर या शिव के अन्य रूपों के नाम से जाने जाने वाले मंदिर हों, या फिर हजार राम मंदिर, देवी दुर्गा हर जगह दिखती हैं। शारदीय नवरात्र कभी कभी अकाल बोधन के नाम से तो इसलिए ही जाना जाता है क्योंकि श्री राम ने रावण पर विजय पाने के लिए इसी समय देवी उपासना की थी।

पर्व-त्यौहार उनके तर्कों में कई छेद दिखा देते हैं, इसलिए भारत की विविधता पर हमला करने वालों को परम्पराओं से विशेष चिढ़ रहती है। नाम और हुलिए से धोखा देने और भेष बदलने में वो माहिर हैं, ऐसे में सवाल ये भी है कि उन्हें पहचानें कैसे? ये बहुत आसान है। वो आपमें बिना वजह अपराध-बोध पैदा करना चाहेंगे। जैसे बिहार में मौसम अति के करीब होता है। गर्मी में लगातार पसीना पोंछने की जरूरत होगी और ठण्ड में कान ढकना होगा। यहाँ बाढ़ की वजह से आद्रता भी रहती है इसलिए मोटा तौलिया इस्तेमाल करने पर वो सूखेगा नहीं। गरीबी की वजह से सभी मोटा फर वाला तौलिया खरीदने में भी समर्थ नहीं है।

इसलिए बिहारियों के गले में आपको अक्सर “गमछा” टंगा मिल जाएगा। आयातित विचारधारा वाला तुरंत इसे “प्रतीकवाद” घोषित करके आपको वैचारिक रूप से नीचा दिखाने लगेगा। खुद वो गले में कोई महंगा दुपट्टा (जिसका पसीना पोछने या कान बांधने में उपयोग न हो) लपेटे सकता है। उस स्थिति में वो बिना बोले ही आपकी गरीबी के लिए आपको नीचा दिखाना चाहता है। ये जो अकारण ही आपको अपराधी सिद्ध करने की कोशिश है इसमें आक्रमणकारी सबसे आसानी से पहचान में आता है। नाज़ी गोएबेल्स के “नेम कालिंग” से सीखकर उन्होंने इसके लिए नारीवाद, भक्त, ब्राह्मणवाद, दलित चिंतन, ट्रोल जैसे कई शब्द भी बना रखे हैं।

भारत में “आप रुपी भोजन, पर रुपी श्रृंगार” की कहावत भी चलती है। आपको अपराधबोध करवाने के लिए वो आपके मांसाहारी होने का मजाक उड़ाएगा। अगर कहीं आप शाकाहारी हुए तो खाने-पीने की निजी स्वतंत्रता छीन रहे हो, ये कहकर आपको नीचा दिखायेगा। उन्हें असली दिक्कत भारत की विविधता से है। भारत उनके सामने इतने रूपों में आता है कि इतने वर्षों के हमलों में भी वो इसे नष्ट नहीं कर पाए हैं। एक तरीका होता तो वो उसे निम्न-नीच-निकृष्ट कहकर ख़त्म भी कर पाते। एक रूप को अनुचित कहने पर उनके सामने दूसरा प्रकट हो जाता है। दुर्गा पूजा और नवरात्र उनके लिए बड़ी समस्या है।

कहीं तीन महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली के रूप में देवी दिखती हैं, तो कहीं नव दुर्गा में उनके नौ रूप हो जाते हैं। वो चौंसठ योगिनी के रूप में भी पूजी जाती हैं और ललिता सहस्त्रनाम के हज़ार नामों से भी। कोस कोस पर बदलते पानी और वाणी की ही तरह हर भक्त के लिए देवी का रूप भी बदल जाता है। उन्हें दस तरीके से पहनी जाने वाली साड़ी की विविधता जनता में तो क्या मूर्तियों में भी अच्छी नहीं लगती। उन्हें सब एक ही बोरे जैसे परिधान में चाहिए। 

बाकी नवरात्रि दुष्टों के दलन का पर्व भी है। भारत की विविधता के शत्रुओं के दमन के पर्व के रूप में भी इसे मना ही सकते हैं।
#नवरात्रि

Comments

Popular posts from this blog

TAWI THE LIFE LINE OF JAMMU CITY.

COCONUTIn Hinduism, offering coconut in a temple is a common practice. The coconut is broken and placed before the Gods and Goddess and later, distributed as prasaad.

सूरज परछाई से हारा।